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योग दर्शन :   गुरु का महत्त्व योगी अश्विनी  

मुझसे अक्सर यह पूछा जाता है कि वेद और योग पर उपलब्ध किताबों व ग्रंथों को पढ़कर कोई भी अपना आत्मिक उत्थान क्यों नहीं कर सकता? गुरु की आवश्यकता क्यों है? लोग अक्सर कहते हैं “ मैं किसी दूसरे व्यक्ति के सामने नहीं झुक सकता “, इस तरह के सवालों और विचारों ने मुझे ‘गुरु’ के बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया है।

‘गुरु क्या है’ यह समझने के लिए कल्पना कीजिए  कि साधक एक ठण्डे पत्थर की तरह है और परम ज्ञान उबलते हुए जल के समान। अगर यह उबलता हुआ जल, ठन्डे पत्थर पर पड़े  तो उस ज्ञान की शक्ति और तापमान से पत्थर में दरार आ सकती है और  वह खंडित  भी हो सकता है। गुरु वह शक्ति हैं जो ज्ञान की आवृत्ति को धारण करने में सक्षम हैं और अपनी शक्ति से ज्ञान के ताप को शिष्य के स्तर पर ले आते हैं । तो ठन्डे पत्थर पर उबलता पानी डालने के बजाय , वह पानी पहले कम तापमान का किया जाता है और बूँद-बूँद करके पत्थर पर डाला जाता है , जिससे उस पत्थर में दरार नहीं भी पड़ती और  धीमे-धीमे उसका तापमान बढ़ने लगता है ।  जब उस साधक रूपी पत्थर का तापमान  ज्ञान रुपी  गरम जल के बराबर हो  जाता है, तब वह भी एक गुरु की श्रेणी प्राप्त कर लेता है। अर्थात ज्ञान की शक्ति, शिष्य की आवृत्ति से भिन्न है। यदि वह शक्ति एकदम से शिष्य में आ जाए  तो उसके लिए घातक हो सकती है। यहाँ पर गुरु शक्ति की आवश्यकता होती है ।  वह धीरे धीरे उस ताप को शिष्य की क्षमता अनुसार उसमें संचालित करते हैं और अंत में साधक बिना किसी हानि के ज्ञान की शक्ति धारण करने में सक्षम हो जाता है।    

विदेश के एक प्रसिद्ध तांत्रिक ‘सर जॉन वूड्रोफ़’ की रचनाएँ सराहनीय है, खासकर वे  जिसमें उन्होंने विभिन्न उदाहरणों द्वारा ‘गुरु’ के विषय पर प्रकाश डाला है। उनके कुछ विचारों का आगे उल्लेख कर रहा हूँ।  

योग या अन्य कोई भी साधना का मार्ग बिना गुरु के तय नहीं किया जा सकता। गुरु मात्र यह शरीर नहीं हैं अपितु परम  गुरु का ही स्वरुप हैं, उन्ही का अवतार हैं जो मानव रूप धारण कर योग की यात्रा के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करते हैं। एक साधक के लिए गुरु ही उसकी साधना का आधार और अंतिम लक्ष्य भी,  क्योंकि कहा जाता है कि एक शिष्य तभी तक शिष्य है जब तक वह साधक हैअर्थात जब तक गुरु शक्तिपात के माध्यम से अपनी सारी शक्ति का संचार उसमें नहीं कर देते । शक्तिपात या दीक्षा पाने के बाद जब एक शिष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है तब दोनों के बीच का द्वैतवाद हट जाता है और वे  एक हो जाते हैं।

 

मुण्डमाला तंत्र में कहा गया है कि सिद्धि का आधार देवता में निहित है। देव का शरीर मंत्र में, मंत्र का आधार दीक्षा में, तथा दीक्षा  के आधार गुरु हैं । जिस प्रकार जीव की मुक्ति  देव गुणों से ऊपर हुए बिना संभव नहीं और देवता के गुणों की आराधना बिना उन गुणों से पार जाना संभव नहीं, उसी प्रकार गुरु की आराधना बिना  परम ज्ञान की प्राप्ति असंभव है।  

एक साधक के लिए गुरु से बढ़कर कोई शक्ति नहीं। उनका स्थान सर्वोच्छ  है। शास्त्रों के अनुसार भी गुरु भक्ति से बढ़कर कुछ नहीं है । एक साधक को अपने गुरु, उनके आसपास का सारा वातावरण और उनसे जुड़ी प्रत्येक  बात सबसे पवित्र और परम सत्य समझनी चाहिए। यहाँ तक कि जिस स्थान पर गुरु निवास करते हैं वह  भगवान शिव का निवास अर्थात कैलाश  माना जाता है और जिस घर में वह रहते हैं वह चिंतामणि निवास है। उनके घर के वृक्ष कल्प वृक्ष;  जो साधक की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं, वहां पर बहता जल गंगा है जो कलियुग का  तीर्थ है। इन सभी बातों का सारांश यह है कि उस पवित्र स्थान में सभी कुछ पवित्र है।

इसी भाव से एक साधक को गुरु के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना चाहिए। रुद्रयामला में कहा गया है कि जो मूर्ख अपना जप और तप  गुरु से प्राप्त करने के बजाए पुस्तकें पढ़ कर करता है, वह केवल पाप इकट्ठा  करता है, उसे कोई नहीं बचा सकता। केवल गुरु ही क्षणभर  में उसके पापों को नष्ट कर सकते हैं।

शास्त्रों में गुरु के महात्मय   और महत्व पर बहुत ज़ोर दिया गया है। पहले के युगों में गुरु – शिष्य परम्परा द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया जाता था।  यदि पुस्तकें पढ़कर या प्रवचन सुनकर ज्ञान पाना  संभव होता तो सभी योगिक और तांत्रिक क्रियाओं में गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त नहीं होता। आज भी शास्त्रों में विदित  संतों और ऋषियों के अनुभवों को अनुभव किया जा सकता है। जिस ज्ञान और शक्तियों का उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है वह आज भी उन साधकों के लिए संभव है जिन्होंने यह जान लिया है कि गुरु कौन हैं और क्या हैं और जो अपने गुरु के प्रत्येक शब्द को मंत्र समझकर  पूर्ण निष्ठा और नियम  से पालन करते हैं। आत्मिक यात्रा जो गुरु मिलने पर आरम्भ होती है, उसमें सतत और समर्पित अभ्यास की आवश्यकता होती है जिसका नियम के रूप में पालन करने से ही योग के रूप में समापन होता है।   

योग में नियम के महत्त्व की चर्चा हम इस श्रृंखला के अगले लेख में करेंगे 

योगी अश्विनी ध्यान फाउंडेशन मार्गदर्शक तथा वैदिक विज्ञान के  विशेषज्ञ हैं । ' सनातन क्रिया – डी एसेंस ऑफ़ योग' में उन्होंने आज के मानव के लिए अष्टांग योग के विज्ञान का सम्पूर्णता से उल्लेख किया है । अधिक जानकारी के लिए www.dhyanfoundation.com या  dhyan@dhyanfoundation.com पर संपर्क करें

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