योग गुरु के वानप्रस्थ आश्रम की चर्चा
योग गुरु के वानप्रस्थ आश्रम की चर्चा
वेद वैज्ञानिक और यथार्थ ज्ञान की खान हैं. इनमे संपूर्ण श्रिष्टि का ज्ञान निहित है. उनमें बड़ी स्पष्ट रूप से परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग का उल्लेख किया गया है और ये भी बताया गया है की किस प्रकार एक जीव उस पथ पर चलते हुए श्रिष्टि के गूढ़ रहस्यों का अनावरण कर सकता है तथा एक रोग-मुक्त शरीर में पूर्ण चेतना के साथ दिव्या विलयन कर सकता है.
खोजन वाले अधिक सफलता प्राप्त करने वाले बहुत कम। इसका कारण साधारण सा है जो सफलता प्राप्त करते हैं उन सभी में तीन गुण पाये जाते हैं-अष्टांग योगके पांच यमों का पालन करने वाला गुरु , अपने जीवन में इस विषय की सर्वाधिक प्राथमिकता , नियमित अभ्यास के साथ साथ सेवा कार्यों में सलग्न होना! येतीनों ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ,वानप्रस्थ व सन्यास नामक चार आश्रमों के ढांचे में बंधे हुए हैं। प्रत्येक आश्रम स्वाभाविक रुप से अगले चरण की ओर प्रस्थान करता है ,इसमें कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की जाती, गुरु के सानिध्य में योग की सही साधना यह सुनिश्चित करती है।
इस लेख में मैं एक योग गुरु के वानप्रस्थ आश्रम की चर्चा करूँगा. साधारणतया लोगों के मन में धारणा है कि वानप्रस्थ का अर्थ है कि सब कुछ त्याग देना परंतु संसार को त्यागने जैसा कुछ भी नहीं है। यह अनुभव पानी के उस जहाज की तरह है जो सागर को पार करता है, यह जल पर रहते हुए इसे पार करता है, जल इसके अंदर नहीं है इसलिए यह डूबता नहीं है। वानप्रस्थ का साधारण सा अर्थ यह है कि जीवन के सांसारिक पहलुओं से व उन व्यक्तियों से जिनके लिए योग की प्राथमिकता सर्वाधिक नहीं है, अपना संपर्क सीमित कर लेना। वानप्रस्थ में ज्ञान का प्रवाह व साधकों के साथ संपर्क निरंतर बना रहता है। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जहाज सागर के बीचों बीच है और अंतिम चरण की ओर अग्रसर है। जहाज पर सीमित व्यक्ति ही होते हैं और केवल उन्हें ही वहां रहने की अनुमति मिलती है जिनका जहाज पर पूर्ण विश्वास होता है। परिणाम इस बात पर आधारित नहीं है कि आप अपने जहाज (गुरु) को कितने समय से जानते हैं, आपकी इच्छा व अन्य आधारों का महत्त्व होता है।
इस यात्रा के लिए ब्रह्मचर्य के दौरान अपने अंदर ऊर्जा को संग्रहित करके व गृहस्थ होते हुए सांसारिक जीवन के अनुभव करने के उपरांत वानप्रस्थ में प्रवेश करतेसमय व्यक्ति भौतिक संसार से अपना मुंह मोड़ने लगता है क्योंकि अपने अंतिम चरण तक पहुंचने के लिए यह सब कुछ छोड़ना ही पड़ता है। गुरुत्वाकर्षण की ऊर्जाशक्ति से बाहर निकलने के लिए राकेट को अपना अतिरिक्त वज़न त्यागना ही पड़ता है। त्यागने का अभिप्राय सब कुछ छोड़ छाड़ कर भाग जाना नहीं अपितु भौतिकविचारों को त्यागना है।
इसे समझाने के लिए मैं एक ऋषि का उदाहरण दूंगा। एक ऋषि ने हिमालय में ध्यान करने हेतु अपना घर परिवार त्याग दिया। प्रतिदिन शिवलिंग पर दूध चढ़ाने काउनका नियम था। हिमालय पर जाने के पश्चात् आसपास के गांव के लोग उन्हें दूध दे जाते और वे अपना नियम पूरा करते। एक बार कोई भी दूध देने नहीं आया। दूधके अभाव में उन्होंने शिवलिंग पर जल अर्पित कर दिया। अब यह अकसर होने लगा कि गांव वाले उन्हें दूध दे जाना भूल जाते। इसलिए ऋषि ने एक गाय पालने कानिर्णय लिया ताकि दूध के लिए उन्हें गांव वालों पर निर्भर न रहना पड़े। जब वे गांव में गाय लेने के लिए गए तो गांव वालों ने उन्हें सुझाव दिया कि उसकी देख भालके लिए वे एक स्त्री को ले जाएं क्योंकि वे स्वयं तो कईं घंटे ध्यान में ही रहते थे। ऋषि ने उनका सुझाव सवीकार कर लिया। पांच वर्ष बीत गए। अब गांव वासियों नेऋषि से विनती की कि वे उस स्त्री से विवाह कर लें क्योंकि अब कोई अन्य उसे नहीं अपनाएगा। ऋषि ने यह भी स्वीकार कर लिया। उन्होंने उस स्त्री से विवाह करलिया व परिवार बसा लिया। तो, केवल एक विचार के कारण वे जो छोड़ आए थे, वापस उसी में बंध गए। तभी यह कहा जाता है, योगः चित्त वृत्ति निरोधः। पांच इंद्रियोंसे परे का अनुभव करने के लिए मस्तिष्क को शांत/स्थिर करना पड़ता है। वानप्रस्थ प्रारंभिक स्थिति है जो संन्यास की ओर ले जाती है।
एक स्थिति के उपरांत योगी को जन साधारण से अपना मेलजोल सीमित करना होता है। मण्डुकया उपनिषद् में हिमालय में रहने वाले एक ऋषि समूह की कथा काउल्लेख है। एक दिन अचानक ही इन ऋषियों को आभास हुआ कि उनके शरीर वृद्ध होने लगे हैं।(एक योगी कभी वृद्ध नहीं होता। वह अपना शरीर पूर्ण चेतना व शक्तिके साथ छोड़ता है और उसे ज्ञान होता है कि इस यात्रा में वह कहां जाने वाला है)। तब उन ऋषियों ने वृद्ध होने के संभावित कारणों पर चर्चा की। उन्हें आभास हुआ किऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वे हिमालय का वास छोड़ कर गांवों में आकर बस गए थे और उनका मेलजोल जनसाधारण से बढ़ गया था। जब आपका मेलजोल साधारणव्यक्तियों के साथ होता है तो ऊर्जा पैटर्न व विचारों में परस्पर आदान प्रदान होता है। और तब शरीर में साधारण मनुष्य के खाने-पीने, मौज-मस्ती करने के लक्षणदिखाई देने लगते हैं। वैदिक गुरुओं का कहना है व आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी प्रत्येक क्रिया की बराबर व विपरीत प्रतिक्रिया होती है। जब आप पांच मूल इंद्रियोंके भोगों में लिप्त होने लगते हैं तो इसके बराबर व विपरीत प्रतिक्रिया के परिणामस्वरुप शरीर वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है। अपनी ऊर्जा का संग्रह करने के लिएवृद्ध होने की इस प्रक्रिया को रोकना होता है ताकि पांच इंद्रियों से परे अपनी अंतिम यात्रा की ओर अग्रसर हो सके व अपने योग्य शिष्यों को अपने साथ आगे ले जायाजा सके। इसलिए वानप्रस्थ की अवस्था के दौरान एक योग गुरु अपने मेलजोल सीमित करते हैं!
ऐसे गुरु के कुछ लक्षण होते हैं- वे आपसे किसी प्रकार की फीस नहीं लेते क्योंकि जो स्वयं माया में बंधा है, वह आपके बंधन कैसे खोलेगा, उनकी आभा व आकर्षण सूर्य के सामान होता है! वे पाँचों यमों में स्थिर होते हैं, उनकी दृष्टि में रोग-मुक्त करना की क्षमता होती है और वे जो भी कहते हैं वह अवश्य होता है। तो मेरा सुझाव है कि गुरु की खोज करें, इस विषय को प्राथमिकता दें फिर निश्चय ही आपको योग रुपी सुंदर यात्रा के लिए जहाज़ पे बिठा लिया जायेगा!
Note:Views expressed are personal of the writer -Yog Ashwini