दीपावली -’ तमसो मा ज्योतिर्गमय’
दीपावली, वर्ष की सबसे अँधेरी रात होती है किन्तु सबसे अधिक शक्तिशाली भी, जिसके भीतर अज्ञान के अन्धकार को दूर कर ज्ञान के प्रकाश की शक्ति भी विद्यमान है अर्थात घना अन्धकार ही अपने अपने भीतर प्रकाश की पिपासा को बढ़ाता है। मानव शरीर में, मूलाधार से आज्ञा चक्र( ललाट का केंद्र ) तक की यात्रा ही अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने की यात्रा है, आत्मा के विकास की यात्रा है। मूलाधार, भगवान गणेश का स्थान है जो भूलोक के देव है तथा आज्ञा, महादेव शिव का । सृष्टि में कोई भी परिवर्तन या रूपान्तरण शिव शक्ति द्वारा हीसंभव है। इस सृष्टि की माया से परे का सत्य ज्ञान अर्थात स्थूल से सूक्ष्म का ज्ञान उन्ही की कृपा से संभव है। दीपावली की रात लोग गणेशजी तथा लक्ष्मीजी की दीया जलाकर पूजा करते हैं किन्तु क्या कभी किसी ने इस बात पर ध्यान दिया है कि देवी लक्ष्मी उल्लू पर सवार हैं तथा भगवान गणेश मूषक पर। उल्लू और मूषक दोनों ही अँधेरे में रहने वाले प्राणी हैं। उल्लू प्रकाश में इस कारण नहीं देख सकता क्योंकि लक्ष्मीजी उस पर सवार हैं और चूहा प्रकाश देखकर भाग जाता है क्योंकि वह गणेश जी का वाहन है।
कोई भी जीव जो मूलस्थान के स्तर पर है उल्लू के समान है जो माया रुपी अंधकार व अज्ञान में जी रहा है या फिर उस मूषक के सामान है जो भौतिक सुखों के पीछे भाग रहा है। यह भी तो प्रकाश से अंधकार की ओर ही जाना हुआ क्योंकि इस संसार के सुख भोग भी तो अस्थायी ही है। इस सत्य को जानते हुए भी कि एक दिन यह सब छूट जायेगा, हम इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और दिन रात उसी नश्वरता के पीछे भागते हुए अपना जन्म और कर्म दोनों ही गवाँ देते हैं और यही अज्ञानता का अंधकार है।
जैसा कि चक्र संतुलन प्राणायाम में विस्तृत रूप से बताया गया है, हमारी नाक की नोक मूलाधार चक्र का प्रतीक है और यहीं से आत्मिक उत्थान की यात्रा आरम्भ होती है। एक साधक का पहला अनुभव भौतिक संतुष्टि ही है। भौतिक सुख सुविधाओं का भोग गलत नहीं है क्योंकि शरीर तो भौतिक अनुभवों के लिए ही है, गलती तो उन भोगों से लगाव रखने में है। यही आसक्ति तो एक व्यक्ति को सुख दुःख के बँधन चक्र में बाँधकर रोग और वृद्धावस्था की ओर ले जाती है। यह तो सुनिश्चित है कि हर भोग अस्थायी है जो अपने साथ अत्यधिक ख़ुशी लाता है किन्तु जब छूटता है तो बहुत कष्ट भी देता है। किसी भी भोग विलास का परिणाम रोग ही है। अब यह आपके ऊपर है कि आप उनके प्रति आसक्त रहें या अनासक्त। क्योंकि आसक्ति ही अंधकार है और अनासक्ति प्रकाश की ओर ले जाती है।
चक्र संतुलन क्रिया के प्रारम्भिक चरणों में एक साधक अपनी नाक के सिरे ( काकी मुद्रा ) पर ध्यान करता है क्योंकि उस समय वह भौतिक अनुभवों की इच्छा रखता है। कुण्डलिनी शक्ति, जो अर्ध निष्क्रिय रूप में मूलस्थान पर कुंडलित रूप में निहित है,ऐसे व्यक्ति के लिए यहशक्ति दिन प्रतिदिन की भोग क्रियाओं में व्यय जाती है। जैसे-जैसे व्यक्ति साधना में अग्रसर होता है, गुरु उसे उच्च लोकों के अनुभव देते हुए उसकी मूल इच्छाओं को परिवर्तित कर देते हैं। जब कुण्डलिनी शक्ति ऊपर की ओर उठती है तो शरीर में कई प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं जैसे अत्यधिक गर्मी महसूस होना, संवेग, स्पंदन, कम्पन आदि का अनुभव होना जो कभी कभी नियंत्रण में भी नहीं होते, या फिर कभी- कभी गुरु पर ही संदेह पैदा कर देते हैं या फिर कोई तीव्र भौतिक इच्छा जागृत हो जाती है जो प्रकाश से अंधकार की और धकेलती है। ऐसा करनेकी इच्छा बहुत तीव्र भी हो सकती है। ऐसे समय पर ही साधक को अपने पिछले अनुभवों के आधार पर ध्यान रखते हुए योग का मार्ग व् गुरु का हाथ पकड़ कर रखना है, निश्चित ही उसे प्रकाश के दर्शन होंगे। क्योंकि यहाँ पर साधक यदि भटक गया या फिर संदेह कर गुरु का हाथछोड़ दिया तो वह हमेशा के लिए अन्धकार में खो जाता है। चक्र संतुलन प्राणायाम के अंतिम चरणों में,अपने आज्ञा स्थान पर ( शाम्भवी मुद्रा ) ध्यान किया जाता है जो उस शक्ति का अनुभव देता है जिससे सभी कुछ नियंत्रित व संचालित है।
अपने आज्ञा स्थान पर आँखों को स्थिर करना अत्यधिक कठिन है क्योंकि आँखें तभी स्थिर हो सकती हैं जब विचार स्थगित हो गए हों। आँखों का स्थिर होना इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि विचार प्रक्रिया हमारी शक्ति को क्षीण करती है। जो शक्ति हमारे भीतर प्रकाशजागृत करने में सक्षम है , वह गहन विचार प्रक्रिया से क्षीण होती है। यह विचार ही आपकी इच्छाएँ हैं जो ध्यान के समय विचारों के रूप में उठती हैं, कभी आप अपनी समस्याओं का विचार करते हैं, तो कभी आवश्यकताओं का तो कभी उस अँधेरे का जिससे आप बाहर निकलना चाहते हैं। जब भी आप सोचते हैं तब मस्तिष्क न्यूरॉन्स में एक कम्पन होता है जो नसों के माध्यम से उत्तेजना या संवेदना पैदा करता है, जिस कारण आपका ध्यान भंग हो जाता है और आप सूक्ष्म शक्ति के अनुभव से वंचित रह जाते हैं ।
एक अनुभव होने के लिए रोशनी देखना बहुत महत्वपूर्ण है और प्रकाश देखने के लिए गुरु होने आवश्यक हैं क्योंकि वही ज्ञान दे सकते हैं, प्रकाश दिखा सकते हैं। हम दीपावली पर जो दीया जलाते हैं वह अंधकार में रोशनी देखने के लिए ही होता है…. तमसो मा ज्योतिर्गमय।
योगी अश्विनी ध्यान आश्रम के मार्गदर्शक हैं। उनसे संपर्क करने हेतु अथवा ध्यान आश्रम के विशेष दीपावली उत्सव में भाग लेने हेतु www.dhyanfoundation.com से संपर्क करें